संपादकीय टिप्पणी

प्रस्तुत हैं कुछ अंश श्री मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘भारत–भारती’ से (सौजन्य से – लोकभारती प्रकाशन, संस्करण २०१४)

‘भारत-भारती’ मैथिलीशरण गुप्त की सर्वाधिक प्रचलित काव्यकृति है। यह सर्वप्रथम संवत् १९१२-१३ में लिखी गई थी। एक समय था जब ‘भारत-भारती’ के पद्य प्रत्येक हिन्दी-भाषी के कण्ठ पर थे। भारतीय राष्ट्रीय चेतना की जागृति में इस काव्यकृति का का बहुत योगदान रहा। ‘भारत भारती’ की पंक्तियाँ जनता के प्राणों में रच-बस गईं, ‘हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी’ का विचार सभी के भीतर गूंज उठा। प्रभातफेरियों, राष्ट्रीय आन्दोलनों, शिक्षा संस्थानों, प्रार्थना-सभाओं में इस काव्यकृति के पद्य गाये जाने लगे, और मैथिलीशरण गुप्त ‘राष्ट्रकवि’ कहलाए। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनुसार इस काव्य में वह संजीवनी शक्ति है जो किसी भी जाति को उत्साह जागरण की शक्ति का वरदान दे सकती है।

यह काव्य तीन खण्डों में विभक्त है : (१) अतीत खन्ड (२) वर्तमान खण्ड (३) भविष्यत् खण्ड। ‘अतीत’ खण्ड में भारतवर्ष के प्राचीन गौरव का बड़े मनोयोग से बखान किया गया है। भारतीयों की वीरता, आदर्श विद्या, बुद्धि, कला-कौशल, सभ्यता-संस्कृति, साहित्य, दर्शन, स्त्री-पुरुषों आदि का गुणगान किया गया है। ‘वर्तमान’ खण्ड में भारत की वर्तमान अधोगति का चित्रण है। इस खण्ड में कवि ने साहित्य, संगीत, धर्म, दर्शन आदि के क्षेत्र में होने वाली अवनति, रईसों और उनके सपूतों के कारनामें, तीर्थ और मन्दिरों की दुर्गति तथा स्त्रियों की दुर्दशा आदि का अंकन किया है। ‘भविष्यत्’ खण्ड में भारतीयों को उद्बोधित किया गया है तथा देश के मंगल की कामना की गयी है

हम यहाँ मुख्यतः ‘भविष्यत्’ खण्ड से कुछ अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। परन्तु उससे पहले काव्यकृति का मंगलाचरण और कुछ पद्य ‘अतीत’ खण्ड में दी गयी उपक्रमणिका से भी लिये गये हैं जिससे पाठकों को एक सम्पूर्ण भाव की अनुभूति हो सके।आईए इन्हें पढ़ें और इनपर सच्चे भाव से चिंतन करें, और अपने अंतर्मन से पूछें कि हम भारत के कैसे भविष्य की परिकल्पना करते हैं और क्या हम इसके लिए वास्तव में कार्यरत हैं ?

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मंगलाचरण

मानस-भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती–
भगवान ! भारतवर्ष में गुँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह आरती हे भगवते !
सीतापते! सीतापते! गीतामते! गीतामते!!

अतीत खण्ड



उपक्रमणिका

हाँ, लेखनी! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा,
दृक्कालिमा में डुबकर तैयार होकर सर्वथा।
स्वच्छन्दता से कर तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो,
जग जाएं तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो॥

संसार में किसका समय है एक-सा रहता सदा,
हैं निशि-दिवा-सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;
जो आज उत्सव-मग्न है, कल शोक से रोता वही!

चर्चा हमारी भी कभी संसार में सर्वत्र थी,
वह सद्गुणों की कीर्ति मानो एक और कलत्र थी।
इस दुर्दशा का स्वप्न में भी क्या हमें कुछ ध्यान था?
क्या इस पतन ही को हमारा वह अतुल उत्थान था!

उन्नत रहा होगा कभी जो हो रहा अवनत अभी,
जो हो रहा अवनत अभी, उन्नत रहा होगा कभी।
हँसते प्रथम जो पद्म हैं तम-पंक में फँसते वही,
मुरझे पड़े रहते कुमुद जो अन्त में हँसते वही॥

उन्नति तथा अवनति प्रकृति का नियम एक अखण्ड है,
चढ़ता प्रथम जो व्योम में गिरता वही मार्तण्ड है।
अतएव अवनति ही हमारी कर रही उन्नति-कला,
उत्थान ही जिसका नहीं, उसका पतन ही क्या भला?

होता समुन्नति के अनन्तर सोच अवनति का नहीं,
हाँ सोच तो है जो किसी की फिर न हो उन्नति कहीं।
चिन्ता नहीं जो व्योम-विस्तृत चन्द्रिका का ह्मास हो ,
चिन्ता तभी है जब न उसका फिर नविन विकास हो॥

है ठीक ऐसी ही दशा हतभाग्य भारतवर्ष की,
कब से इतिश्री हो चुकी इसके अखिल उत्कर्ष की।
पर सोच है केवल यही यह नित्य गिरता ही गया,
जब से फिरा है दैव इससे नित्य फिरता ही गया॥

यह नियम है, उद्यान में पककर गिरे पत्ते जहाँ,
प्रकटित हुए पीछे उन्हीं के लहलहे पल्लव वहाँ।
पर हाय! इस उद्यान का कुछ दूसरा ही हाल है,
पतझड़ कहें या सूखना, कायापलट या काल है?

अनुकूल शोभा-मूल सुरभित फूल वे कुम्हला गये,
फलते कहाँ हैं अब यहाँ वे फल रसाल नये-नये?
बस, इस विशालोद्यान में अब झाड़ या झंखाड़ हैं,
तनु सूखकर काँटा हुआ, बस शेष हैं तो हाड़ हैं॥

दृढ़ दुःख दावानल इसे सब और घेर जला रहा,
तिस पर अदृष्टाकाश उलटा विपद-वज्र चला रहा।
यद्यपि बुझा सकता हमारा नेत्र-जल इस आग को,
पर धिक् हमारे स्वार्थमय सूखे हुए अनुराग को॥

सहृदय जनों के चित्त निर्मल कुड़क जाकर काँच-से–
होते दया के वश द्रवित हैं तप्त हो इस आँच से।
चिन्ता कभी भावी दशा की वर्तमान व्यथा कभी,
करती तथा चंचल उन्हें है भूतकाल-कथा कभी॥

जो इस विषय पर आज कुछ कहने चले हैं हम यहाँ,
क्या कुछ सजग होंगे सखे! उसको सुनेंगे जो जहाँ?
कवि के कठिनतर कर्म की करते नहीं हम धृष्टता,
पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता?

हम कौन थे, क्या हो गये है और क्या होंगे अभी,
आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।
यद्यपि हमें इतिहास अपना प्राप्त पूरा है नहीं,
हम कौन थे, इस ज्ञान को, फिर भी अधूरा है नहीं॥



भारतवर्ष की श्रेष्ठता

भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ।
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारतवर्ष है॥

हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
ऐसा पुरात देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है,
विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है॥

यह पुण्यभूमि प्रसिद्ध है इसके निवासी ‘आर्य’ हैं,
विद्या, कला-कौशल्य सबके जो प्रथम आचार्य हैं।
सन्तान उनकी आज यद्यपि हम अधोगति में पड़े;
पर चिह्न उनकी उच्चता के आज भी कुछ हैं खड़े॥

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भविष्यत् खण्ड

उद्बोधन

है बदलता रहता समय, उसकी सभी घातें नयी,
कल काम में आती नहीं हैं आज की बातें कई!
है सिद्धि-मूल यही कि जब जैसा प्रकृति का रंग हो–
तब ठीक वैसा ही हमारी कार्य-कृति का ढंग हो॥

प्राचीन हों कि नवीन छोड़ो रुढ़ियाँ जो हों बुरी,
बनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस जैसी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भली हैं, यह विचार अलीक है;
जैसी अवस्था हो जहाँ वैसी व्यवस्था ठीक है॥

सर्वत्र एक अपूर्व युग का हो रहा संचार है,
देखो, दिनोंदिन बढ़ रहा विज्ञान का विस्तार है;
अब तो उठो, क्यों पड़ रहे हो व्यर्थ सोच-विचार में?
सुख दूर, जीना भी कठिन है श्रम बिना संसार मै॥

पृथ्वी, पवन, नभ, जल, अनल सब लग रहे हैं काम में,
फिर क्यों तुम्हीं खोते समय हो व्यर्थ के विश्राम में?
बीते हजारों वर्ष तुमको नींद में सोते हुए,
बैठे रहोगे और कब तक भाग्य को रोते हुए॥

इस नींद में क्या-क्या हुआ, यह भी तुम्हें कुछ ज्ञात है?
कितनी यहाँ लूटें हुई, कितना हुआ अपघात है!
होकर न टस से मस रहे तुम एक ही करवट लिये ,
निज दुर्दशा के दृश्य सारे स्वप्न-सम देखा किये!

इस नींद में ही तो यवन आकर यहाँ आदृत हुए,
जागे न हा! स्वातन्त्र्य खोकर अन्त में तुम धृत हुए।
इस नींद में ही सब तुम्हारे पूर्व-गौरव हृत हुए,
अब और कब तक इस तरह सोते रहोगे मृत हुए?

उत्तप्त ऊष्मा के अनन्तर दीख पड़ती वृष्टि है,
बदली न किन्तु दशा तुम्हारी, नित्य शनि की दृष्टि है!
है घूमता फिरता समय तुम किन्तु ज्यों के त्यों पडे,
फिर भी अभी तक जी रहे हो, वीर हो निश्चय बड़े!

पशु और पक्षी आदि भी अपना हिताहित जानते,
पर हाय! क्या तुम अब उसे भी हो नहीं पहचानते?
निश्चेष्टता मानो हमारी नष्टता की दृष्टि है,
होती प्रलय के पूर्व जैसे स्तब्ध सारी सृष्टि है॥

सोचो विचारो, तुम कहाँ हो, समय की गति है कहाँ,
वे दिन तुम्हारे आप ही क्या लौट आवेंगे यहाँ?
ज्यों ज्यों करेंगे देर हम वे और बढ़ते जायेंगे,
यदि बढ़ गये वे और तो फिर हम न उनको पायेंगे॥

करके उपेक्षा निज समय को छोड़ बैठे हो तुम्हीं,
दुष्कर्म करके भाग्य को भी फोड़ बैठे हो तुम्हीं।
बैठे रहोगे हाय! कब तक और यों ही तुम कहो?
अपनी नहीं तो पूर्वजों की लाज तो रखो अहो!

लो भाग अपना शीघ्र ही कर्त्तव्य के मैदान में,
हो बद्ध परिकर दो सहारा देश के उत्थान में।
डूबे न देखो नाव अपनी है पड़ी मँझधार में,
होगा सहायक कर्म का पवार ही उद्धार में॥

भूलो न ऋषि-सन्तान हो, अब भी तुम्हें यदि ध्यान हो–
तो विश्व को फिर भी तुम्हारी शक्ति का कुछ ज्ञान हो।
बनकर अहो! फिर कर्मयोगी वीर बड़भागी बनो,
परमार्थ के पीछे जगत में स्वार्थ के त्यागी बनो॥

होकर निराश कभी न बैठो, नित्य उद्योगी रहो;
सब देश-हितकारी कार्य में अन्योन्य सहयोगी रहो।
धर्मार्थ के भोगी रहो, बस कर्म के योगी रहो,
रोगी रहो तो प्रेम-रूपी रोग के रागी रहो!

पुरुषत्व दिखलाओ पुरुष हो, बुद्धि-बल से काम लो,
तब तक न थककर तुम कभी अवकाश या विश्राम लो–
जब तक कि भारत पूर्व के पद पर न पुनरासीन हो,
फिर ज्ञान में, विज्ञान में जब तक न वह स्वाधीन हो॥

निज धर्म का पालन करो, चारों फलों की प्राप्ति हो
दुख-दाह, आधि-व्याधि सबकी एक साथ समाप्ति हो।
ऊपर कि नीचे एक भी सुर है नहीं एसा कहीं
सत्कर्म में रत देख तुमको जो सहायक हो नहीं॥

देखो, तुम्हें पूर्वज तुम्हारे देखते हैं स्वर्ग से,
करते रहे जो लोक का हित उच्च आत्मोत्सर्ग से।
है दुख उन्हें अब स्वर्ग में भी पतित देख तुम्हें अरे!
सन्तान हो क्या तुम उन्हीं की, राम! राम! हरे हरे !

अब तो बिदा कर दुर्गुणों को सद्गुणों को स्थान दो,
खोया समय यों ही बहुत अब तो उसे सम्मान दो।
चिरकाल तिमिरावृत्त रहे, आलोक का भी स्वाद लो,
हो योग्य सन्तति, पूर्वजों से दिव्य आशीर्वाद लो॥

जग को दिखा दो यह कि अब भी हम सजीव, सशक्त है,
रखते अभी तक नाड़ियों में पूर्वजों का रक्त हैं।
ऐसा नहीं कि मनुष्यरूपी और कोई जन्तु हैं,
अब भी हमारे मस्तकों में ज्ञान के कुछ तन्तु हैं॥

अब भी सँभल जावें कहीं हम, सुलभ हैं सब साज भी ,
बनना, बिगड़ना है हमारे हाथ अपना आज भी।
यूनान, मिस्त्रादिक मिटे हैं, किन्तु हम अब भी बने,
यद्यपि हमारे मेटने को ठाठ कितने ही ठने॥



है आर्य सन्तानो! उठो, अवसर निकल जावे नहीं,
देखो, बड़ों की बात जग में बिगड़ने पावे नहीं।
जग जान ले कि न आर्य केवल नाम के ही आर्य हैं,
वे नाम के अनुरूप ही करते सदा शुभ कार्य हैं॥

ऐसा करो जिसमें तुम्हारे देश का उद्धार हो,
जर्जर तुम्हारी जाति का बेड़ा विपद से पार हो।
ऐसा न हो जो अन्त में, चर्चा करें ऐसी सभी–
थी एक हिन्दू नाम की भी निन्द्य जाति यहाँ कभी॥

समझो न भारत-भक्ति केवल भूमि के ही प्रेम को,
चाहो सदा निज देशवासी बन्धुओं के क्षेम को।
यों तो सभी जड़ जन्तु भी स्वास्थान के अति भक्त हैं;
कृमि, कीट, खग, मृग, मीन भी हमसे अधिक अनुरक्त हैं॥

लाखों हमारे दीन-दुःखी बन्धु भूखों मर रहे,
पर हम व्यसन में डूबकर कितना अपव्यय कर रहे!
क्या देश वत्सलता यही है? क्या यही सत्कार्य है?
क्या लक्ष्य जीवन का यही है? क्या यही औदार्य है?

मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा,
हैं सब स्वदेशी बन्धु, उनके दुःखभागी हो सदा।
देकर उन्हें साहाय्य भरसक सब विपत्ति-व्यथा हरो,
निज दुःख से ही दूसरों के दुःख का अनुभव करो॥

अन्तःकरण उज्ज्वल करो औदार्य के आलोक से ,
निर्मल बनो सन्तप्त होकर दूसरों के शोक से।
आत्मा तुम्हारा और सबका एक निरवछेद है,
कुछ भेद बाहर क्यों न हो भीतर भला क्या भेद है?

सबसे बड़ा गौरव यही तो है हमारे ज्ञान का,
जानें चराचर विश्व को हम रूप उस भगवान का।
ईशस्थ सारी दृष्टि हममें और हम सब सृष्टि में,
है दर्शनों में दृष्टि जैसे और दर्शन दृष्टि में॥

सबसे हमारे धर्म का ऊँचा यही तो लक्ष्य है ,
होती असीम अनेकता में एकता प्रत्यक्ष है।
मति ही चरमता या परमता है वही अविभिन्नता,
बस छा रही सर्वत्र प्रभु की एक निरवच्छिन्नता॥

भगवान कहते हैं स्वयं ही, भेद-भावों को तजे,
है रूप मेरा ही, मुझे जो सर्व भूतों में भजे।
जो जानता सबमें मुझे, सबको मुझी में जानता;
है मानता मुझको वही, मैं भी उसी को मानता॥

हे भाइयो! भगवान के आदेश का पालन करो ,
अनुदार भाव-कलंक-रूपी पंक प्रक्षालन करो।
नवनीत तुल्य दयार्द्र हो सब भाइयों के ताप में,
सबमें समझकर आपको, सबको समझ लो आप में॥

बस मर्म स्वार्थ-त्याग ही तो है हमारे धर्म का ,
है ईश्वरार्पण सर्वदा सब फल हमारे कर्म का।
निष्काम होना ही हमारा निरुपमेय महत्त्व है,
प्रभु का स्वयं श्रीमुख कथित गीता-ग्रथित यह तत्त्व है॥

इतिहास है, हम पूर्व में स्वार्थी कभी होते न थे;
सुख-बीज हम अपने लिये ही विश्व में बोते न थे।
तब तो हमारे अर्थ यह संसार ही सुख-स्वर्ग था;
मानो हामारे हाथ पर रखा हुआ अपवर्ग था॥

हम पर-हितार्थ सहर्ष अपने प्राण भी देते रहे,
हाँ, लोक के उपकार-हित ही जन्म हम लेते रहे।
सुर भी परीक्षक हैं हमारे धर्म के अनुराग के,
इतिहास और पुराण हैं साथी हमारे त्याग के॥

हैं जानते यह तत्त्व जो जन आज भी वे मान्य हैं,
चाहे बिना ही पा रहे वे सब कहीं प्राधान्य हैं।
जग में न उनको प्राप्त हो जो कौन ऐसी सिद्धि है?
उनके पदों पर लोटती सब ऋद्धियों की वृद्धि है॥

करते उपेक्षा यदि न हम उस उच्चतम उद्देश्य की,
तो आज यह अवनाति नहीं होती हमारे देश की।
यदि इस समय भी सजग हों तो भी हमारा भाग्य है,
पर कर्म के तो नाम से ही अब हमें वैराग्य है॥

सच्चे प्रयत्न कभी हमारे व्यर्थ हो सकते नहीं ,
संसार भर के विघ्न भी उनको डुबो सकते नहीं!
वे तत्त्वदर्शी ऋषि हमारे कह रहे हैं यह कथा–
“सत्यप्रतिष्ठायां क्रिया (सु-) फलाश्रयत्वं सर्वथा’॥

आओ बनें शुभ साधना के आज से साधक सभी,
निज धर्म की रक्षा करें, जीवन सफल होगा तभी।
संसार अब देखे कि यदि हम आज हैं पिछड़े पड़े
तो कल बराबर और परसों विश्व के आगे खड़े॥


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